प्राचीन काल से ही पंच महाभूतों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश तत्व की महत्ता को स्वीकारा है। हमारा शरीर इन्ही पंचतत्वों से निर्मित है, प्रकृति के नियमों की अवहेलना एवं अप्राकृतिक खान-पान से हमारा शरीर रोगग्रस्त हो रहा । प्रकृति का नियम है कि ‘प्रकृति ने जो वस्तु जिस रुप में दी है उसे उसका रुप बिगाडे बिना प्रयोग किया जाय।’ परन्तु आज के इस आपाधापी के युग में ऐसा सम्भव नही हो पाता परिणामस्वरुप व्यक्ति रोगी हो जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा रोग को दबाती नही बल्कि यह समस्त आधि-व्याधियों एवं साघ्य असाघ्य रोगों को जड़ मूल से मिटा सकती है। अन्य चिकित्सा विधियों से तो सिर्फ रोगो की आक्रामकता को कुछ समय के लिए रोका/दबाया जा सकता है, परन्तु समस्त रोगों का उपचार तो प्रकृति ही करती है।
प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति ही नही बल्कि जीवन जीने की कला भी है जो हमें आहार,निद्रा,सूर्य का प्रकाश, स्वच्छ पेयजल,विशुद्ध हवा, सकारात्मकता एवं योगविज्ञान का समुचित ज्ञान कराती है।
हम रोगी क्यों होते हैं : रोग किसी एक दिन का परिणाम नहीं है बल्कि यह दीर्घकाल तक हमारी अनियमित दिनचर्या एवं अप्राकृतिक खान-पान का फल है| रोगों का कारण जीवाणु भी हम नहीं मानते क्योंकि जीवाणु तो वातावरण में मौजूद ही हैं, यदि वे एक व्यक्ति को संक्रमित कर सकते हैं तो फिर उसी जैसे दूसरे या तीसरे व्यक्ति को संक्रमण क्यों नहीं होता| दो व्यक्ति जो एक ही उम्र के हैं, समान परिवेश में रहते हैं उनमें से एक व्यक्ति को सर्दी, जुकाम, बुखार, फोड़े-फुंसी अथवा किसी अन्य प्रकार संक्रमण हो जाता है जबकि संक्रमित होने के पहले वे दोनों एक साथ रहे, साथ भोजन किया एवं एक ही कमरे में सोये भी, तो फिर दूसरा व्यक्ति क्यों रोग-ग्रस्त नही हुआ ? कारण स्पष्ट है की पहले व्यक्ति के शरीर में रोग-जीवाणुओं को पनपने के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि मिल गयी जिससे जीवाणुओं ने उस व्यक्ति पर आक्रमण कर दिया | अब प्रश्न यह है की शरीर में वह उपयुक्त पृष्ठभूमि क्या है जो रोग जीवाणुओं को पनपाने के लिए उत्तरदायी है ? यहाँ पर यह जान लेना आवश्यक है कि जीवाणुओं को गंदगी से पोषण मिलता है | जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर अनियमित दिनचर्या एवं अप्राकृतिक खान-पान से विजातीय द्रव्यों को एकत्र कर रखा है तो स्वाभाविक है वह विजातीय द्रव्य जीवाणुओं के लिए पोषण का कार्य करेंगे और हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करेंगे फलस्वरूप शरीर विभिन्न रोगों से घिर जायेगा | इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक लुई कूने ने अपनी पुस्तक “द न्यू साइंस ऑफ़ हीलिंग ” में एक उदाहरण से स्पष्ट किया है कि – ‘ यदि किसी कमरे में सीलन, दूषित हवा आदि है तो निश्चित रूप से उसमें कई तरह के जीवाणु , मच्छर, मक्खी आदि उत्पन्न हो जायेंगे यदि इन जीवाणुओं को विष औषधि के द्वारा नष्ट कर दिया जाये तो कुछ समय के लिए वह नष्ट हो जायेंगे परन्तु चूँकि कमरे में जीवाणुओं के पनपने का जो कारण(गंदगी) था वह नष्ट नही हुआ है अतः कमरे में जीवाणु पुनः उत्पन्न हो जायेंगे, बल्कि इस बार उनका स्वरुप और भीषण होगा क्योंकि जीवाणुओं को मारने के लिए प्रयुक्त विष कि मात्रा वहाँ पर और बढ़ चुकी होगी।
प्राकृतिक चिकित्सा मानती है कि सभी रोग एक हैं,सबके कारण एक हैं और उनकी चिकित्सा भी एक है रोगों का कारण है- अप्राकृतिक खान-पान, अनियमित दिनचर्या एवं दूषित वातावरण ; इन सब के चलते शरीर में विजातीय द्रव्य ( विष की मात्रा ) बढ़ जाती है। जब यह विष किसी अंग विशेष या पूरे शरीर पर ही अपना प्रभुत्व जमा लेता है तब रोग लक्षण प्रगट होते हैं इन रोग लक्षणों को औषधियों से दबाना कदापि उचित नहीं हैं बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा विकसित वैज्ञानिक उपचारों के सहयोग से शरीर के प्रमुख मल निष्कासक अंग -त्वचा,बड़ी आंत,फेफडे एवं गुर्दों के माध्यम से विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालना उचित है तभी हम सम्पूर्ण निरोगता की ओर अग्रसर हो सकेंगे।
वर्तमान में प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है। रोगमुक्ति के लिए दवाएं खा-खा कर परेशान हो चुके लोग पुनः भारत की इन प्राचीनतम चिकित्सा पद्धतियों का सहारा ले कर रोगमुक्त हो रहे हैं। ऐसे में योग/प्राकृतिक चिकित्सकों की मांग भी बढ़ रही है। यदि आप प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग में अपना कैरियर बनाना चाहते हैं तो अखिल भारतीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा परिषद् द्वारा संचालित “प्राकृतिक एवं योग चिकित्सा का तीन वर्षीय डिप्लोमा –DNYS” एवं अन्य पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर आप प्राकृतिक चिकित्सक बन सकते हैं।